कल दोपहर छत पर बैठा तो नज़र अचानक अशोक के पेड़ पर आये फूलों पर गयी। यह फूल जैसे तो नहीं पर हैं फूल ही। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन्हें ही देख वह अशोक के फूल वाला निबन्ध लिखा था। थोड़ा खोजा तो एक वेबसाइट पर यह निबन्ध मिल तो गया पर उसके साथ जो तस्वीर लगी थी वह 'इन छोटे-छोटे, लाल-लाल पुष्पों' के मनोहर स्तबकों में कैसा मोहन भाव है! देख कर किसी अजनबी लाल फूल को वहाँ लगाये बैठे हैं। जबकि इसे कहते फूल हैं पर यह रूढी बद्ध फूलों की तरह दिखते नहीं हैं। और इनका मौसम भी यही जून जुलाई है। जून ख़तम हुए छह दिन हो चुके हैं। यह होते ऐसे ही हैं, बिलकुल ऐसे..
ऐसा तो कोई नहीं कह सकेगा कि कालिदास के पूर्व भारतवर्ष में इस पुष्प का कोई नाम ही नहीं जानता था, परंतु कालिदास के काव्यों में यह जिस शोभा और सौकुमार्य का भार लेकर प्रवेश करता है वह पहले कहाँ था! क्या यह मनोहर पुष्प भुलाने की चीज़ थी? सहृदयता क्या लुप्त हो गई थी? कविता क्या सो गई थी? ना, मेरा मन यह सब मानने को तैयार नहीं है। जले पर नमक तो यह है कि एक तरंगायित पत्रवाले निफूले पेड़ को सारे उत्तर भारत में 'अशोक' कहा जाने लगा। याद भी किया तो अपमान करके। महाभारत में ऐसी अनेक कथाएँ आती हैं जिनमें संतानार्थिनी स्त्रियाँ वृक्षों के अपदेवता यक्षों के पास संतान-कामिनी होकर जाया करती थीं! भरहुत, बोधगया, सांची आदि में उत्कीर्ण मूर्तियों में संतानार्थिनी स्त्रियों का यक्षों के सान्निध्य के लिए वृक्षों के पास जाना अंकित है। इन वृक्षों के पास अंकित मूर्तियों की स्त्रियाँ प्राय: नग्न हैं, केवल कटिदेश में एक चौड़ी मेखला पहने हैं। अशोक इन वृक्षों में सर्वाधिक रहस्यमय है।
अशोक-स्तबक का हर फूल और हर दल इस विचित्र परिणति की परंपरा ढोए आ रहा है। कैसा झबरा-सा गुल्म है! अशोक का फूल तो उसी मस्ती में हँस रहा है। पुराने चित्त से इसको देखनेवाला उदास होता है। वह अपने को पंडित समझता है। पंडिताई भी एक बोझ है - जितनी ही भारी होती है उतनी ही तेज़ी से डुबाती है। जब वह जीवन का अंग बन जाती है तो सहज हो जाती है। तब वह बोझ नहीं रहती। वह उस अवस्था में उदास भी नहीं करती। कहाँ! अशोक का कुछ भी तो नहीं बिगड़ा है।
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