रविवार, 7 जुलाई 2013

सद्गति


सुबह शनिवार की थी। मंदिर मार्ग पर आवाजाही बिलकुल बंद। लगा इतने सवेरे कौन नेता यहाँ से गुजरने को है। सात बजे आठ बजे कोई नहीं आया। बाद में पता चला एक पेड़ गिरहा है उसे ही ठिकाने लगाने का बंदोबस्त किया जाना है। हमारे समाज पेड़ों के प्रति इतने सहिष्णु नही कि छठी सातवीं कक्षा की हिंदी की किताब में पढ़े पाठ की तरह लोग बर्लिन की तरह यहाँ भी उसे काटने का विरोध करने के लिए इक्कठा हो जाएँ। अरे वो अशोक वाजपेयी का कभी कभार नहीं भीष्म साहनी टाइप लेखक का लिखा कोई संस्मरण था।

ऐसे ही अभी अष्टभुजा शुक्ल की पता नहीं कौन सी कविता उस शाम सर सुना रहे थे, याद नहीं आ रही। कि पीपल का पेड़, ब्रह्म देवता को काटने कोई हिन्दू सामने नहीं आता। जिसे बुलाते हैं वह कोई पास्मान्दा मुसलमान था। जिसे पता नहीं था पेड़ काटने पर कौन सा पाप लगता है।

पेड़ कट जाता है। पाप लग जाता है।

प्रेमचंद की कहानी है 'सद्गति' में दुखिया जाति से चमार है। भले 'चमार' शब्द आज असंवैधानिक घोषित हो गया हो पर भाव आज भी यहाँ वहां तैरता दिख जाता है। पर उस दिन पता नहीं क्यों उस कटर मशीन को देख दुखिया की याद हो आई। अगर इस मशीन का आविष्कार सन उन्नीस सौ तीस के शुरुवाती दशक में हो जाता तब वह पंडित जी के यहाँ घंटो धूप में लकड़ी नहीं फाड़ रहा होता। तुरंत मशीन उठाता और पांच मिनट भी नही बीतते कि लट्ठ साफ़।

पर पता है यह इतना साफ़गोई से बिना गया परदा ही है जहाँ आज भी दुखिया वहीँ किसी पंडित के दुआरे यहाँ घास गाय के सामने डाल दे और जरा झाडू लेकर द्वार तो साफ़ कर दे। यह बैठक भी कई दिन से लीपी नहीं गई। उसे भी गोबर से लीप दे। के हुकुम की तामील में  अपनी जान लड़ाए दे रहे हैं।

सपनों को यूटोपिया कह देना आसान है उनके लिए लड़ना मुश्किल।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें