रात कितनी देर सोया पता नहीं। पर लगातार उससे जूझते हुए करवट बदलता रहा यही
याद रह गया है। दिल्ली की रातें बीते कई सालों से ऐसे ही चिपचिपी सी उमस
भरी रही हैं। उनमे हमारा व्यवहार भी ढर्रा सा बनता जा रहा है। रात नींद
पूरी न हो, तो उसे सुबह दुपहर शाम की शिफ़्ट में पूरा किया जा सकता है।
लिख तो ऐसे रहा हूँ कि जैसे अभी पुरानी फिल्मों की तरह इस भूमिका के बाद यहाँ भी मुख्य कलाकारों के नाम आने
वाले हैं। ख़ैर..
घूमना ऐसे ही मौसम से भाग लेने वाले ‘एस्केप रूट’ की तरह
आता है। अभी दिल्ली उतरे ही थे के दस दिनों से जो ठंडक हमारे इर्दगिर्द
बारिश की बूंदों के साथ रातें कंबल के साथ लाती थी, सब गायब हो गईं। दिमाग
रुक नहीं रहा था। भागे जा रहा था।
तभी ख़्याल आया ब्लॉग बनाते हैं।
पर
उसका मिजाज़ कैसा होगा। जब एक पहले से ही है तब यह दूसरा क्यों। पर इस वाले
नुक्ते पर जादा रुका नहीं। कहीं दूर पीछे मुड़ गया। शायद ग्यारहवीं या बारहवीं की अँग्रेजी की किताब में एक चैप्टर था। ‘इको टूरिज़म’। स्कूल में
‘इको क्लब’ तो ठीक से चल नहीं रहा था। ख़स्ता हाल था। फिर यह कौन सी बला थी
जनाब!! कोई भी सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था।
जितना समझे उतने में तब यही भेजे में घुसा के पहाड़ों पर भी पर्यटन
के लिए जाया जा सकता है। पर थोड़ी जिम्मेदारियों के साथ। उसके मूल स्वरूप को
बिना बिगाड़े। मानवीय क्रियाओं से वहाँ के जनजीवन को बिना बाधित किए। आज
जितना समझ पाया हूँ उसका हासिल यही है के तब हमारे यहाँ ‘पर्यटन’ तब तक एक
‘उद्योग’ के रूप में अपने पैरों के बल खड़ा होना सीख रहा था। तब ‘प्राकृतिक
सौंदर्य’ को ‘दुहने का सौंदर्यशास्त्र’ विकसित किया जा रहा था।
अगर
ध्यान से देखें तब हमे दिखाई देगा कि ‘कूड़ा’ अपने आप में जीवनशैली है। उस
भोग लिए गए ‘उत्पाद’ का अपशिष्ट रूप। इस सूत्र को थोड़ा और विस्तार से समझें
तब लगेगा हमारे दुर्गम स्थल इसी ‘उत्पाद’ के दुह लिए जाने के बाद की अवस्था में पहुँचते जा रहे हैं। वहीं यह पाठ हमसे टकराता है और थोड़ा नैतिक
होकर हम आगे आने वाली पीढ़ी से थोड़ा सामाजिक रूप से उत्तरदायित्व लेने की माँग करता है।
कि अगर कल हम कहीं ऐसी जगह जाएँ तब ऐसा अनपेक्षित व्यवहार न
करें। पर लगता है वह उसमे पूरी तरह फ़ेल हो गया। अगर ऐसा न होता तब एक
इजारेदार अख़बार ऐसा न लिखता के आज का दार्जिलिंग सोलन की तरह लगता है, सोलन
कसौली की तरह, मसूरी गाज़ियाबाद की तरह।
दिखने में यह भारतीय वाणिज्य के
लंबे हाथों की कारस्तान लगती है जिसने विविधता को इस तरह छिन्न-भिन्न किया।
पर जाना इसके पीछे होगा। गहराई में उतरना होगा।
इतने नेगेटिव नोट पर
ब्लॉग को शुरू नहीं करना चाहता था पर जो चीज़ साफ़-साफ़ दिख रही है उसे कैसे
नज़रअंदाज़ करूँ।
फिर महत्वपूर्ण यह सवाल भी है के जिन ज़ायको की प्रायोजित
तलाश में विनोद दुआ एनडीटीवी की टीम लेकर निकलते हैं उन सबको खुद को बचा
लेने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता होगा। जहाँ एक तरफ़ पानी की खाली बोतलों
के ढेर के ढेर स्पीति में ‘ताशी-द-लेक’ होटल के पिछवाड़े पड़ें हों दूसरी
तरफ़ मनाली शिमला के मालरोड पर एक से एक विदेशी ब्रांड अपनी दुकान खोलने को
लालायित हो वहाँ उनका खुद का बचना काफी मुश्किल है।
यह ‘फील एट होम’ वाला
जो नुक्ता है वही सब खेल बिगाड़ रहा है।
जब मेरे खुद के विचार इस तरह के
हैं तब यह ब्लॉग बनाया ही नहीं जाना था। ऐसा कई लोग सोच रहे होंगे। पर
नहीं। कई धाराएँ हैं। वे उसे कैसे लेते हैं, यह उनके ऊपर है। मैंने भी कोई
सामाजिक दायित्व वाला हिस्सा नहीं उठा लिया है। पता है घूमना भरी जेब वालों
का शौक है। जो घुमक्कड़ी कहते हैं, फाकामस्ती कहते हैं; उनके यहाँ भी
विदेशी ब्राण्ड के फोटो खींचक कैमरे तस्वीरें उतार रहे हैं।
जिनके पेट भरे
हैं, जिनहे कल की चिंता खाये नहीं जा रही है जो सुकून से रोटी कपड़ा मकान
वाले त्रिभुज से निकलने में सफल हो चुके हैं उनके हिस्से यह मेक माय
ट्रिप, ट्रिप ऍडवायज़र, क्लब महिन्द्रा, महागौरी विकेशन्स जैसे पूरे
तंत्र पड़े हैं। फिर घूम चुकने के बाद फ्लिकर, फ़ेसबुक, इनस्टाग्राम, टंबलर
जैसी साइट्स हैं, वहाँ महंगे-महंगे कैमरों वाली तस्वीरें अपलोड की जा सकती
हैं।
इन सबके बीच एक मैं भी हूँ। और मेरा यह नया अड्डा भी। पता नहीं यह
कैसा रूपाकार लेगा। इसके हाथ पैर कैसे अखुयाएंगे।
खुद मेरे लिए दुनिया के मानी क्या हैं? अपने आप में घूमना सैर करना क्या है? यह 'पर्यटक' बन निर्लिप्त भाव से चलते जाना है या उसमे रच बस जाना ? उन रीति रिवाजों परम्पराओं मान्यताओं के प्रति कैसा रुख लेना है? सैर क्या हमेशा नयी नयी जगहों पर कूच करते जाना है या पुरानी जगहों को भी नए सिरों से तलाश जा सकता है? उस लोक में खुद को कहाँ स्थित करूँ? वहाँ तैरती कथाएँ किवदंतियाँ किस्से कहानियाँ किन रूपों में हमारी ज़िन्दगी को प्रभावित करती हैं? सवाल ढेर ढेर सारे हैं और जवाब किसी एक का भी अभी पाना नहीं चाहता। धीरे-धीरे उन कतरों अंतरों गलियों सड़कों से गुज़रते उन्हें छूते चलेंगे।
खुद मेरे लिए दुनिया के मानी क्या हैं? अपने आप में घूमना सैर करना क्या है? यह 'पर्यटक' बन निर्लिप्त भाव से चलते जाना है या उसमे रच बस जाना ? उन रीति रिवाजों परम्पराओं मान्यताओं के प्रति कैसा रुख लेना है? सैर क्या हमेशा नयी नयी जगहों पर कूच करते जाना है या पुरानी जगहों को भी नए सिरों से तलाश जा सकता है? उस लोक में खुद को कहाँ स्थित करूँ? वहाँ तैरती कथाएँ किवदंतियाँ किस्से कहानियाँ किन रूपों में हमारी ज़िन्दगी को प्रभावित करती हैं? सवाल ढेर ढेर सारे हैं और जवाब किसी एक का भी अभी पाना नहीं चाहता। धीरे-धीरे उन कतरों अंतरों गलियों सड़कों से गुज़रते उन्हें छूते चलेंगे।
आप रहेंगे न साथ..!!
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