बुधवार, 26 जून 2013

काश वो दिन लौट आते..


पता नहीं हम सब रेल देख कर कैसे कैसे होते रहते हैं। बचपन से ही खिड़की वाली सीट की भाई बहन से छीनाझपटी मारकुटाई वाली अवस्था रह रह कईयों को याद आती होंगी। उसके भागते पहिये, पटरी से टकराती आवाज़; सब एकएक कर गूँजती सी है। गुलज़ार की एक फिल्म है क़िताब। उसका ओपनिंग सीन ही इन सारी ध्वनियों के साथ खुलता है। बच्चा भाग लेना चाहता है। अपनी बहन के घर से दूर। वह अभी भी काफ़ी छोटा है पर सब उससे बड़ा हो जाने की माँग करने लगे हैं। उसने दूरी ख़त्म करने के लिए चुनी यही रेल।

वह जो बच्चा है उसने कान में पड़ती उन आवाजों के साथ भाप से भागते इंजन और डिब्बे से बाहर की दुनिया को अपना बनाया। वह बराबर बोले जा रहा है। बेतहाशा। ऐसा नहीं है उनका कोई अर्थ नहीं है। वे सब सार्थक ध्वनियाँ हैं। आप सुनेंगे उन्हें। चिकाचिक चिकाचिक चिकाचिक, भागचला भागचला भागचला, किधरचला किधरचला किधरचला..!!

थोड़ी देर उसकी आवाज़ नहीं आती। जब आती है तब पीछे पूछे सवाल का जवाब होता है।

माँकेपास माँकेपास माँकेपास, भागचला भागचला भागचला, माँकेपास माँकेपास माँकेपास..किधरचला किधरचला, चिकाचिक चिकाचिक, भागचला भागचला..!!

पढ़ने में थोड़ा अटपटा सा है पर इन सबको लगातार बोलने पर ऐसे लगता है जैसे सचमुच रेलगाड़ी हमारे साथ भाग रही हो। खैर, बातें तो और भी हैं पर यहाँ मालगाड़ी की आड़ में यह सात हिन्दुस्तानी क्या सोच रहे होंगे। शायद ऐसी ही कोई याद। किसी बिरवे में अरझ गए कनकौउए की तरह। शर्तिया यह सब अपने घरों से दूर हैं। बीते दिनों की गठरी के साथ। पैसे कुछ कम पड़ गए वरना ये फगुआ अपने यहीं मनाते। टिरेन हमेशा से ऐसे ही रही है। सुबह पाँच बजे मटेरा के बाद धड़धड़ाते कब रिसिया पहुँच सीटी बजाएगी पता नही चलेगा। इसलिए दूर से आती रेल की सीटी के दोबारा गुज़रने से पहले उठ जाना होगा। किसी से मिलने का वक़्त सँझा से पहले गुजरने वाली पैसेंजर रही होगी। अढ़री के खेत में। पुरानी मिल के पीछे। या बंद गोदाम के अहाते में। या गुज़रती रेलगाड़ी में भुट्टा सेंक सेंक बेचने के बाद भी शाम को मिलती होगी हताश रोटी। तभी तय किया होगा, भाग लेंगे।

भागकर आ गए होंगे यहाँ। दो जून की दाल रोटी के लिए।

कभी खुशवंत सिंह का उपन्यास 'पाकिस्तान मेल' पढ़ा था। मनो माजरा गाँव वालों के लिए बाद के दिन अँधेरी रातों की तरह थे। जहाँ उनकी आदत बन गयी आवाज़ तयशुदा वक़्त पर नहीं आ रही थी। सब कुछ बिगड़ गया था। बिगड़ रहे थे हालात। फिर इधर स्वयं प्रकाश की कहानी 'क्या तुमने कभी सरदार भिखारी देखा है' पढ़ी। लगा रेल गाड़ियाँ इतनी सुखद स्मृतियों के लिए याद नहीं की जाती जितना कि उनके हिस्से के स्याह पन्ने दिखते हैं। और तब तो बिलकुल लगा के यह पूरी की पूरी विलन ही है जब मो. आरिफ़ के अनुदित उपन्यास 'उपयात्रा' से गुज़र रहा था। फिर पंकज सुबीर की 'ईस्ट इंडिया कंपनी' अपनी कमजोरियों के बाद भी याद रह गयी।

पर यहाँ सुबह वाली गाड़ी से चले जाने की उलाहना वाला भाव जादा दिख रहा है। रेल ही है जो उन्हें पंजाब ले आई है। वही उन्हें अपने घर वापस ले जायेगी। वो तो शुकर है ये सब हरित क्रांति के पुरोधा किसानों के हत्थे नहीं चढ़े। वरना बंधुआ मज़दूर बन उनकी कैद में सड़ रहे होते। यहाँ हमारी जनशताब्दी को देख सपनों में खो नहीं जाते। वो जो हाथ इधर उठा है ऐसी ही कोई बात सबमे साझा हो रही होगी। और तब छोटी सी मुस्कराहट कनअँखियों से चल होंठों पर आकर पसर गयी होगी।

एक दिन इन सबको अपने घर वापस जाना है। अभी गाँव में मनरेगा है फिर भी यह प्रवासी कामगार अगर अपने घरों पर नहीं हैं तब इनकी एवज़ में सोचने वालों को कुछ और सोचना चाहिए। न कि गोण्डा से स्पेशल ट्रेन चलाकर यहाँ मरने खपने के लिए ठेल देने का इंतज़ाम करना चाहिए। कि अगली बार खाने पीने की चिंता में घुलता मरद अपनी मेहरारू को भी साथ लाने की सोचने लगे। और उसे भी इस भट्ठी में झोंक दे। जहाँ सुकून नहीं। सिर्फ़ घर की याद है। जो हर दम पीछे छूटता जा रहा है। लगातार। बिन बताये..

चलता हूँ रात काफी हो गयी है। सवा एक बज रहा है। यहाँ बैठा तो पता नहीं और क्या क्या अकडम बकडम लिखता रहूँगा। फ़िर लग तो यह भी रहा है के आज कुछ जादा ही बोल गया। औकात से बाहर का..

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