कभी कभी कोई जगह हमारी न होते हुए भी हमारी जैसी ही होती है। बस उसका होना ज़रूरी है। उसका न होना, हमारा न होना है। बस वह रहे। हम उसे देखते रहें। कोई हमसे पूछता नहीं पर कोई कहे तो सही। तब बताएँगे। वह कितना हमारा है। बचपन से ही ऐसी एक जगह थी। यह।
लेकिन अब यह वहाँ नही है। हम कभी इस इमारत के
अंदर नहीं गए। तब भी यह हमारी थी। जब कभी उसके सामने से गुज़रते हमे खींच
लेती। के अंदर से यह होगी कैसी। ऐसा हम क्या देख लेने वाले हैं जो पहले कभी
नहीं देखा होगा। हिन्दी फिल्में इस रूप में भी हमें बना रही थीं। क्योंकि
इसके नाम में ‘क्लब’ जुड़ा था। साउथ इंडिया क्लब।
बिरला मंदिर जाते वक़्त
डीटीइए स्कूल के बिलकुल चिपकी हुई। कभी अंदर जाना नहीं हुआ पर बगल से पीछे
बनी कैंटीन में कई बार सांबर वाड़ा ज़रूर खाने ज़रूर चले जाते थे। पीछे दो तीन
साल पहले काले रंग से इसे ‘Abandoned’ लिख प्रतिबंधित घोषित कर दिया। कि
इमारत क्षतिग्रस्त है। अंदर जाने में ख़तरा है। इसलिए भी बाड़ेबंदी कर दी।
पता नहीं वो जो वहाँ पीछे रहकर अपनी दुकान चलाते थे उनका क्या हुआ।
फिर एक
एक कर अपने आस पास ही नज़र दौड़ाता हूँ तब लगता है दिल्ली का सबसे कम बदले
जाने वाला इलाका होने के बावजूद कई चीज़ें अपनी जगह पर अब नहीं हैं। गोल
मार्किट से ‘श्रीधरन’ गायब हुआ तब कई सालों तक पता नहीं डोसा खाने कहीं गए
ही नहीं। फिर ‘सरस्वती बुक स्टाल’ के बगल से एक बंगाली दंपति अपनी दुकान
खाली करके चले गए। अब वहाँ ठंडी बीयर मिलती हैं। ऐसे ही भूली भटियारी की
तरफ से वंदेमातरम रोड पर निकाल पड़ते तब ‘रबीन्द्र रंगशाला’ दिख पड़ती। एक
दिन उसे भी तोड़ देंगे। हमे पता भी नहीं चलेगा।
‘साउथ इंडिया क्लब’ को जिस
टाटा की मशीन ने तोड़ा है वह दानवाकार बुलडोज़रनुमा क्रेन परसो तक वहीं खड़ी
थी। दोपहर मन नहीं माना तब ही देखने चला गया। भाई ने सुबह बताया था। तभी से
अंदर पता नहीं कैसा हो रहा था।
सोमवार के ‘हिन्दू’ में ख़बर भी है। स्कूल
प्रशासन को डर है कि कहीं भू-माफ़िया उस ज़मीन पर कब्ज़ा न कर ले। सीपी के
इतने पास होने का एक ख़तरा यह भी है। साथ ही क्लब वाले कह रहे हैं कि ऐसी
कोई बात नहीं है। चूंकि इमारत जर्जर हो चुकी थी इसलिए उसे ढहाना ज़रूरी था।
अब जो नयी बिल्डिंग बनेगी उसमे ‘सत्यमूर्थी ऑडिटोरियम’ भी होगा और वही
पुराना क्लब भी। बेसमेंट में पार्किंग। दो चार दुकानें जिससे क्लब का ख़र्चा
चल सके। जो भी हो ऐसे ख़तरों को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता।
इस जगह को लेकर जो आख़िरी याद है उसमे एक रात बिरला मंदिर
कालीबाड़ी की तरफ़ से सैर कर लौट रहा था कि एक आदमी पीसीआर से एक आदमी को
लाया और क्लब के चौकीदार पर आरोप लगाने लगा कि साहब यह रात में दो आदमियों
को यहाँ सोने देता है। सोने एटा है का मतलब पैसे लेने से था, जिसे वह खुद
कहना नहीं चाहता था। मेरी तरफ़ बढ़ा तो लगा नशे में है। थोड़ी बात सुनकर मैं
आगे बढ़ गया। आज न वो इमारत है न चौकीदार। सिर्फ़ मैं हूँ और उसकी यह घिसी
पिटी तस्वीर।
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