रविवार, 7 जुलाई 2013

सद्गति


सुबह शनिवार की थी। मंदिर मार्ग पर आवाजाही बिलकुल बंद। लगा इतने सवेरे कौन नेता यहाँ से गुजरने को है। सात बजे आठ बजे कोई नहीं आया। बाद में पता चला एक पेड़ गिरहा है उसे ही ठिकाने लगाने का बंदोबस्त किया जाना है। हमारे समाज पेड़ों के प्रति इतने सहिष्णु नही कि छठी सातवीं कक्षा की हिंदी की किताब में पढ़े पाठ की तरह लोग बर्लिन की तरह यहाँ भी उसे काटने का विरोध करने के लिए इक्कठा हो जाएँ। अरे वो अशोक वाजपेयी का कभी कभार नहीं भीष्म साहनी टाइप लेखक का लिखा कोई संस्मरण था।

ऐसे ही अभी अष्टभुजा शुक्ल की पता नहीं कौन सी कविता उस शाम सर सुना रहे थे, याद नहीं आ रही। कि पीपल का पेड़, ब्रह्म देवता को काटने कोई हिन्दू सामने नहीं आता। जिसे बुलाते हैं वह कोई पास्मान्दा मुसलमान था। जिसे पता नहीं था पेड़ काटने पर कौन सा पाप लगता है।

पेड़ कट जाता है। पाप लग जाता है।

प्रेमचंद की कहानी है 'सद्गति' में दुखिया जाति से चमार है। भले 'चमार' शब्द आज असंवैधानिक घोषित हो गया हो पर भाव आज भी यहाँ वहां तैरता दिख जाता है। पर उस दिन पता नहीं क्यों उस कटर मशीन को देख दुखिया की याद हो आई। अगर इस मशीन का आविष्कार सन उन्नीस सौ तीस के शुरुवाती दशक में हो जाता तब वह पंडित जी के यहाँ घंटो धूप में लकड़ी नहीं फाड़ रहा होता। तुरंत मशीन उठाता और पांच मिनट भी नही बीतते कि लट्ठ साफ़।

पर पता है यह इतना साफ़गोई से बिना गया परदा ही है जहाँ आज भी दुखिया वहीँ किसी पंडित के दुआरे यहाँ घास गाय के सामने डाल दे और जरा झाडू लेकर द्वार तो साफ़ कर दे। यह बैठक भी कई दिन से लीपी नहीं गई। उसे भी गोबर से लीप दे। के हुकुम की तामील में  अपनी जान लड़ाए दे रहे हैं।

सपनों को यूटोपिया कह देना आसान है उनके लिए लड़ना मुश्किल।

शनिवार, 6 जुलाई 2013

अशोक के फूल


कल दोपहर छत पर बैठा तो नज़र अचानक अशोक के पेड़ पर आये फूलों पर गयी। यह फूल जैसे तो नहीं पर हैं फूल ही। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इन्हें ही देख वह अशोक के फूल वाला निबन्ध लिखा था। थोड़ा खोजा तो एक वेबसाइट पर यह निबन्ध मिल तो गया पर उसके साथ जो तस्वीर लगी थी वह 'इन छोटे-छोटे, लाल-लाल पुष्पों' के मनोहर स्तबकों में कैसा मोहन भाव है! देख कर किसी अजनबी लाल फूल को वहाँ लगाये बैठे हैं। जबकि इसे कहते फूल हैं पर यह रूढी बद्ध फूलों की तरह दिखते नहीं हैं। और इनका मौसम भी यही जून जुलाई है। जून ख़तम हुए छह दिन हो चुके हैं। यह होते ऐसे ही हैं, बिलकुल ऐसे..


ऐसा तो कोई नहीं कह सकेगा कि कालिदास के पूर्व भारतवर्ष में इस पुष्प का कोई नाम ही नहीं जानता था, परंतु कालिदास के काव्यों में यह जिस शोभा और सौकुमार्य का भार लेकर प्रवेश करता है वह पहले कहाँ था! क्या यह मनोहर पुष्प भुलाने की चीज़ थी? सहृदयता क्या लुप्त हो गई थी? कविता क्या सो गई थी? ना, मेरा मन यह सब मानने को तैयार नहीं है। जले पर नमक तो यह है कि एक तरंगायित पत्रवाले निफूले पेड़ को सारे उत्तर भारत में 'अशोक' कहा जाने लगा। याद भी किया तो अपमान करके। महाभारत में ऐसी अनेक कथाएँ आती हैं जिनमें संतानार्थिनी स्त्रियाँ वृक्षों के अपदेवता यक्षों के पास संतान-कामिनी होकर जाया करती थीं! भरहुत, बोधगया, सांची आदि में उत्कीर्ण मूर्तियों में संतानार्थिनी स्त्रियों का यक्षों के सान्निध्य के लिए वृक्षों के पास जाना अंकित है। इन वृक्षों के पास अंकित मूर्तियों की स्त्रियाँ प्राय: नग्न हैं, केवल कटिदेश में एक चौड़ी मेखला पहने हैं। अशोक इन वृक्षों में सर्वाधिक रहस्यमय है।


अशोक-स्तबक का हर फूल और हर दल इस विचित्र परिणति की परंपरा ढोए आ रहा है। कैसा झबरा-सा गुल्म है! अशोक का फूल तो उसी मस्ती में हँस रहा है। पुराने चित्त से इसको देखनेवाला उदास होता है। वह अपने को पंडित समझता है। पंडिताई भी एक बोझ है - जितनी ही भारी होती है उतनी ही तेज़ी से डुबाती है। जब वह जीवन का अंग बन जाती है तो सहज हो जाती है। तब वह बोझ नहीं रहती। वह उस अवस्था में उदास भी नहीं करती। कहाँ! अशोक का कुछ भी तो नहीं बिगड़ा है।

शुक्रवार, 28 जून 2013

कई जगहों का गायब होते जाना


कभी कभी कोई जगह हमारी न होते हुए भी हमारी जैसी ही होती है। बस उसका होना ज़रूरी है। उसका न होना, हमारा न होना है। बस वह रहे। हम उसे देखते रहें। कोई हमसे पूछता नहीं पर कोई कहे तो सही। तब बताएँगे। वह कितना हमारा है। बचपन से ही ऐसी एक जगह थी। यह।

लेकिन अब यह वहाँ नही है। हम कभी इस इमारत के अंदर नहीं गए। तब भी यह हमारी थी। जब कभी उसके सामने से गुज़रते हमे खींच लेती। के अंदर से यह होगी कैसी। ऐसा हम क्या देख लेने वाले हैं जो पहले कभी नहीं देखा होगा। हिन्दी फिल्में इस रूप में भी हमें बना रही थीं। क्योंकि इसके नाम में ‘क्लब’ जुड़ा था। साउथ इंडिया क्लब।

बिरला मंदिर जाते वक़्त डीटीइए स्कूल के बिलकुल चिपकी हुई। कभी अंदर जाना नहीं हुआ पर बगल से पीछे बनी कैंटीन में कई बार सांबर वाड़ा ज़रूर खाने ज़रूर चले जाते थे। पीछे दो तीन साल पहले काले रंग से इसे ‘Abandoned’ लिख प्रतिबंधित घोषित कर दिया। कि इमारत क्षतिग्रस्त है। अंदर जाने में ख़तरा है। इसलिए भी बाड़ेबंदी कर दी। पता नहीं वो जो वहाँ पीछे रहकर अपनी दुकान चलाते थे उनका क्या हुआ।

फिर एक एक कर अपने आस पास ही नज़र दौड़ाता हूँ तब लगता है दिल्ली का सबसे कम बदले जाने वाला इलाका होने के बावजूद कई चीज़ें अपनी जगह पर अब नहीं हैं। गोल मार्किट से ‘श्रीधरन’ गायब हुआ तब कई सालों तक पता नहीं डोसा खाने कहीं गए ही नहीं। फिर ‘सरस्वती बुक स्टाल’ के बगल से एक बंगाली दंपति अपनी दुकान खाली करके चले गए। अब वहाँ ठंडी बीयर मिलती हैं। ऐसे ही भूली भटियारी की तरफ से वंदेमातरम रोड पर निकाल पड़ते तब ‘रबीन्द्र रंगशाला’ दिख पड़ती। एक दिन उसे भी तोड़ देंगे। हमे पता भी नहीं चलेगा।

‘साउथ इंडिया क्लब’ को जिस टाटा की मशीन ने तोड़ा है वह दानवाकार बुलडोज़रनुमा क्रेन परसो तक वहीं खड़ी थी। दोपहर मन नहीं माना तब ही देखने चला गया। भाई ने सुबह बताया था। तभी से अंदर पता नहीं कैसा हो रहा था। 

सोमवार के ‘हिन्दू’ में ख़बर भी है। स्कूल प्रशासन को डर है कि कहीं भू-माफ़िया उस ज़मीन पर कब्ज़ा न कर ले। सीपी के इतने पास होने का एक ख़तरा यह भी है। साथ ही क्लब वाले कह रहे हैं कि ऐसी कोई बात नहीं है। चूंकि इमारत जर्जर हो चुकी थी इसलिए उसे ढहाना ज़रूरी था। अब जो नयी बिल्डिंग बनेगी उसमे ‘सत्यमूर्थी ऑडिटोरियम’ भी होगा और वही पुराना क्लब भी। बेसमेंट में पार्किंग। दो चार दुकानें जिससे क्लब का ख़र्चा चल सके। जो भी हो ऐसे ख़तरों को नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता।

इस जगह को लेकर जो आख़िरी याद है उसमे एक रात बिरला मंदिर कालीबाड़ी की तरफ़ से सैर कर लौट रहा था कि एक आदमी पीसीआर से एक आदमी को लाया और क्लब के चौकीदार पर आरोप लगाने लगा कि साहब यह रात में दो आदमियों को यहाँ सोने देता है। सोने एटा है का मतलब पैसे लेने से था, जिसे वह खुद कहना नहीं चाहता था। मेरी तरफ़ बढ़ा तो लगा नशे में है। थोड़ी बात सुनकर मैं आगे बढ़ गया। आज न वो इमारत है न चौकीदार। सिर्फ़ मैं हूँ और उसकी यह घिसी पिटी तस्वीर। 

गुरुवार, 27 जून 2013

हम पिंजरे में होते तब क्या तुम हमें भी गोद लेते


तब एयरसेल नयी नयी कंपनी थी। उसे दिखाना था वह उन सबसे कुछ अलग है। उसने ‘टाइगर’ शब्द चुना। ‘सेव टाइगर’। उदय प्रकाश अपने ब्लॉग पर इसी शेर बाघ को लेकर दो ढाई साल पहले किसी की कविता को याद भी कर चुके हैं। इन वन्यजीवों का हम इन्सानों के रहमोकरम पर हो आना ही उस त्रासदी की शुरुवात है जहां से चिड़ियाघर की दीवार शुरू होती है।

दो हज़ार दस मार्च। हम ‘सरिस्का’ में थे। हमसे कुछ पहले मनमोहन सिंह यहाँ टहल आए थे। और बिलकुल उन्ही की तरह हमे भी कोई शेर नहीं दिखा। कतर्निया घाट से लेकर दुधवा नेशनल पार्क तक हलचल मची। खबर आई दो चार बचे हैं। उस कंपनी के दावे खोखले निकले जो चौदह सौ की गिनती को खींचखाँच कर दो हज़ार तक ले गयी थी। अब इधर उसने अपना पैसा आईपीएल की धोनी वाली टीम को प्रायोजित करने में लगा दिया है। और बराबर बता रही है के उसका भी बाज़ार बचा हुआ है।

आने वाली पीढ़ी के लिए इन्हे बचाकर रखने में जो दंभ है उसकी ध्वनियाँ भी हमारे हिंसात्मक समाज में गूँजती रही हैं। इसके शिकार और खाल को पहनने में जो पौरुष फूट फूटकर ओज की तरह बिखरा पड़ा है उसके लिए प्रेमचंद की कहानी ‘शिकार’ पढ़ने की ज़रूरत नही है।

जहाँ कई वैश्विक संस्थाओं की रोज़ी रोटी ही इन जानवरों के बचे रहने पर टिकी हुई हैं। वहीं इन सबके बीच बिना शोर शराबे के काम करते लोग दिखाई पड़ते हैं तब अच्छा लगता है। मैसूर चिड़ियाघर को किसी भी रूप में राज्य सरकार या केंद्र सरकार से वित्तीय सहायता नहीं मिलती। यहाँ के अधिकांश जानवरों को मैसूर निवासियों ने गोद लिया हुआ है। आपको सिर्फ साल भर का ख़र्चा देना है और सारी जिम्मेदारी इनकी। जहाँ यह चीते रखे गए हैं उसी के बगल में एक बोर्ड भी लगा हुआ है। उस बोर्ड पर लिखा है ‘We are thaknful to The Children Of Sri Rahul Dravid Former Indian Cricketer For Adopting Two Hunting Cheetahs From 3 july 2012 to 2 July 2013.’

वहाँ लोग इस जैसे लगे हज़ारों बोर्डों को अनदेखा कर बस चले जा रहे थे। शायद उनके लिए यह कोई गैरज़रूरी चीज़ रही होगी। फिर जब हर पिंजरे के साथ कई कई ऐसे सूचनात्मक बोर्ड लगे हों तब उनका पढ़ा जाना किए जाने लायक काम कैसे हो सकता है। या फिर यह उस टूरिस्ट बस वाले की दी गयी समय सीमा का दबाव जो टीवी पर हैवल्स का ऍड देखते हुए हुए महसूस नहीं होता। वहाँ बस एक जोड़ी बूढ़े माँ बाप ही तो चाहिए। गोद लेने को।

हम ऐसे समय में रह रहे हैं जहाँ हमारा ‘विकास’ हमे अपने जैसे दिखने वाली ‘स्पीशीज’ से जोड़े नहीं रख पा रहा है तब इन जानवरों की कोई क्या सुनेगा। जहाँ हम आसानी से ‘डार्विन के सिद्धांत’ की आड़ लेकर खुद को बचाते आए हैं। इस मॉडल में एक दिन वह ऍड भी बनेगा जब गर्भावस्था को स्टेटस सिंबल की तरह दिखाकर ‘प्रेग्नेंसी रिज़ॉर्ट’ अपना विज्ञापन करेंगे। यही वह जगह है जनाब जहाँ ऐश्वर्या के डिंब अभिषेक के शुक्राणुओं से मिले थे।

बुधवार, 26 जून 2013

काश वो दिन लौट आते..


पता नहीं हम सब रेल देख कर कैसे कैसे होते रहते हैं। बचपन से ही खिड़की वाली सीट की भाई बहन से छीनाझपटी मारकुटाई वाली अवस्था रह रह कईयों को याद आती होंगी। उसके भागते पहिये, पटरी से टकराती आवाज़; सब एकएक कर गूँजती सी है। गुलज़ार की एक फिल्म है क़िताब। उसका ओपनिंग सीन ही इन सारी ध्वनियों के साथ खुलता है। बच्चा भाग लेना चाहता है। अपनी बहन के घर से दूर। वह अभी भी काफ़ी छोटा है पर सब उससे बड़ा हो जाने की माँग करने लगे हैं। उसने दूरी ख़त्म करने के लिए चुनी यही रेल।

वह जो बच्चा है उसने कान में पड़ती उन आवाजों के साथ भाप से भागते इंजन और डिब्बे से बाहर की दुनिया को अपना बनाया। वह बराबर बोले जा रहा है। बेतहाशा। ऐसा नहीं है उनका कोई अर्थ नहीं है। वे सब सार्थक ध्वनियाँ हैं। आप सुनेंगे उन्हें। चिकाचिक चिकाचिक चिकाचिक, भागचला भागचला भागचला, किधरचला किधरचला किधरचला..!!

थोड़ी देर उसकी आवाज़ नहीं आती। जब आती है तब पीछे पूछे सवाल का जवाब होता है।

माँकेपास माँकेपास माँकेपास, भागचला भागचला भागचला, माँकेपास माँकेपास माँकेपास..किधरचला किधरचला, चिकाचिक चिकाचिक, भागचला भागचला..!!

पढ़ने में थोड़ा अटपटा सा है पर इन सबको लगातार बोलने पर ऐसे लगता है जैसे सचमुच रेलगाड़ी हमारे साथ भाग रही हो। खैर, बातें तो और भी हैं पर यहाँ मालगाड़ी की आड़ में यह सात हिन्दुस्तानी क्या सोच रहे होंगे। शायद ऐसी ही कोई याद। किसी बिरवे में अरझ गए कनकौउए की तरह। शर्तिया यह सब अपने घरों से दूर हैं। बीते दिनों की गठरी के साथ। पैसे कुछ कम पड़ गए वरना ये फगुआ अपने यहीं मनाते। टिरेन हमेशा से ऐसे ही रही है। सुबह पाँच बजे मटेरा के बाद धड़धड़ाते कब रिसिया पहुँच सीटी बजाएगी पता नही चलेगा। इसलिए दूर से आती रेल की सीटी के दोबारा गुज़रने से पहले उठ जाना होगा। किसी से मिलने का वक़्त सँझा से पहले गुजरने वाली पैसेंजर रही होगी। अढ़री के खेत में। पुरानी मिल के पीछे। या बंद गोदाम के अहाते में। या गुज़रती रेलगाड़ी में भुट्टा सेंक सेंक बेचने के बाद भी शाम को मिलती होगी हताश रोटी। तभी तय किया होगा, भाग लेंगे।

भागकर आ गए होंगे यहाँ। दो जून की दाल रोटी के लिए।

कभी खुशवंत सिंह का उपन्यास 'पाकिस्तान मेल' पढ़ा था। मनो माजरा गाँव वालों के लिए बाद के दिन अँधेरी रातों की तरह थे। जहाँ उनकी आदत बन गयी आवाज़ तयशुदा वक़्त पर नहीं आ रही थी। सब कुछ बिगड़ गया था। बिगड़ रहे थे हालात। फिर इधर स्वयं प्रकाश की कहानी 'क्या तुमने कभी सरदार भिखारी देखा है' पढ़ी। लगा रेल गाड़ियाँ इतनी सुखद स्मृतियों के लिए याद नहीं की जाती जितना कि उनके हिस्से के स्याह पन्ने दिखते हैं। और तब तो बिलकुल लगा के यह पूरी की पूरी विलन ही है जब मो. आरिफ़ के अनुदित उपन्यास 'उपयात्रा' से गुज़र रहा था। फिर पंकज सुबीर की 'ईस्ट इंडिया कंपनी' अपनी कमजोरियों के बाद भी याद रह गयी।

पर यहाँ सुबह वाली गाड़ी से चले जाने की उलाहना वाला भाव जादा दिख रहा है। रेल ही है जो उन्हें पंजाब ले आई है। वही उन्हें अपने घर वापस ले जायेगी। वो तो शुकर है ये सब हरित क्रांति के पुरोधा किसानों के हत्थे नहीं चढ़े। वरना बंधुआ मज़दूर बन उनकी कैद में सड़ रहे होते। यहाँ हमारी जनशताब्दी को देख सपनों में खो नहीं जाते। वो जो हाथ इधर उठा है ऐसी ही कोई बात सबमे साझा हो रही होगी। और तब छोटी सी मुस्कराहट कनअँखियों से चल होंठों पर आकर पसर गयी होगी।

एक दिन इन सबको अपने घर वापस जाना है। अभी गाँव में मनरेगा है फिर भी यह प्रवासी कामगार अगर अपने घरों पर नहीं हैं तब इनकी एवज़ में सोचने वालों को कुछ और सोचना चाहिए। न कि गोण्डा से स्पेशल ट्रेन चलाकर यहाँ मरने खपने के लिए ठेल देने का इंतज़ाम करना चाहिए। कि अगली बार खाने पीने की चिंता में घुलता मरद अपनी मेहरारू को भी साथ लाने की सोचने लगे। और उसे भी इस भट्ठी में झोंक दे। जहाँ सुकून नहीं। सिर्फ़ घर की याद है। जो हर दम पीछे छूटता जा रहा है। लगातार। बिन बताये..

चलता हूँ रात काफी हो गयी है। सवा एक बज रहा है। यहाँ बैठा तो पता नहीं और क्या क्या अकडम बकडम लिखता रहूँगा। फ़िर लग तो यह भी रहा है के आज कुछ जादा ही बोल गया। औकात से बाहर का..

मंगलवार, 25 जून 2013

जब हम वापस आते थे, तुम्हे देखते थे

फूल हमें तुम्हारा नाम नहीं पता
जून ख़त्म होने वाला है और बरसात है के अभी तक दिल्ली पहुँची नहीं है। पर पहले ऐसा नहीं होता था। उनका होना न होना कहीं न कहीं हमें भरता है तो खाली भी करता है। उन सबमें कुछ चीजें अभी भी वैसे ही हो रही हैं। उनको स्वाभाविक मान हम टाल नहीं सकते। बस ऐसा लगता है के सिर्फ़ देखते रहने को अभिशप्त हैं।

इस तस्वीर में जो फूल है उसका नाम नहीं मालुम। पर बचपन से इन्ही दिनों गाँव से छुट्टियों के बाद लौट इनसे मिलते थे। अब इधर मुलाक़ात थोड़ी मुश्किल से होती है। थोड़े हम बिज़ी हो चले हैं, थोड़ी इस मौसम की काहिली खून में घुस गयी लगती है जैसे।

जिस जगह यह आज है वहीँ कल भी था। तभी से देख रहे थे। बस इसके कुछ संगी साथी पास ही जाली में लगे हुए थे, उनका रंग थोड़ा अलग था; वो ऐसे भी थे और थोड़े लाल-लाल गुलाबी से भी थे। बारिश की बूंदे बरस जाने के बाद भी यहाँ रुकी रहती। हमारा इंतज़ार करती। उनको छू भर लेने से जो ठंडक मिलती उसे इधर मिस कर रहे हैं। हम सब। जो इसके नीचे खड़े हो जाते और हममे से एक उसकी टहनी को हिलाकर उन छोटी नाज़ुक बूंदों को फिर से बरसाते।

इधर महीने तो वक़्त से आते जाते रहे रहे हैं। खुद यह फ़ूल वाली डांड़ पूरे साल अपने को सुखाये रहती है। माली इसको छेड़ता नहीं है। ऐसे ही रहने देता है। उसे पता है यह अखुआएगी। और हर साल हर बार यह हमें निराश नहीं करती। बताती है, इसमें अभी जीवन बचा है। ऐसा करके वह थोड़ा हमें भी बचा लेती है। अभी दो महीने बाद अगस्त आएगा, शायद तब हम फिर इसे वैसे ही देख पायें। पर..पता नहीं क्या..

हम सब बचपन से देखते तो आ रहे हैं पर इनके लिए कुछ कर नहीं पाए। क्या करना इसका कोई कच्चा ख़ाका भी नहीं है। बस यही घूमता रहता है कि बागबानी कैसे परम्परागत थाती है और उसका हस्तांतरण माता पिता अपने बच्चों तक करते हैं। समझ में थोड़ा थोड़ा आता भी है। तब भी यह सवाल वहीँ का वहीँ है के इसे ज्ञान की वैधता क्यों नहीं मिली। जिनके पास यह ज्ञान परम्परागत रूप है या था तब उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि इतनी पिछड़ी कैसे रह गयी कि दिल्ली की गलियों कॉलोनियों में सायकिल भाँजते, दो अदद पैर, सुबह सुबह पीछे झउआ बांधे फिरते हैं। सच कहूँ तो इसका जवाब उन फूल पौधों की नर्सरियों में छुपा है जिनके मालिक सुजान सिंह पार्क जैसे इलाकों में भी ज़मीन वाले बने रहे और उस वर्ग को अपने यहाँ बतौर माली तनख्वाह देते रहे हैं।

सोमवार, 24 जून 2013

पहली पोस्ट उर्फ़ इस ब्लॉग का उत्तर पाठ

रात कितनी देर सोया पता नहीं। पर लगातार उससे जूझते हुए करवट बदलता रहा यही याद रह गया है। दिल्ली की रातें बीते कई सालों से ऐसे ही चिपचिपी सी उमस भरी रही हैं। उनमे हमारा व्यवहार भी ढर्रा सा बनता जा रहा है। रात नींद पूरी न हो, तो उसे सुबह दुपहर शाम की शिफ़्ट में पूरा किया जा सकता है।

लिख तो ऐसे रहा हूँ कि जैसे अभी पुरानी फिल्मों की तरह इस भूमिका के बाद यहाँ भी मुख्य कलाकारों के नाम आने वाले हैं। ख़ैर..

घूमना ऐसे ही मौसम से भाग लेने वाले ‘एस्केप रूट’ की तरह आता है। अभी दिल्ली उतरे ही थे के दस दिनों से जो ठंडक हमारे इर्दगिर्द बारिश की बूंदों के साथ रातें कंबल के साथ लाती थी, सब गायब हो गईं। दिमाग रुक नहीं रहा था। भागे जा रहा था।

तभी ख़्याल आया ब्लॉग बनाते हैं।

पर उसका मिजाज़ कैसा होगा। जब एक पहले से ही है तब यह दूसरा क्यों। पर इस वाले नुक्ते पर जादा रुका नहीं। कहीं दूर पीछे मुड़ गया। शायद ग्यारहवीं या बारहवीं की अँग्रेजी की किताब में एक चैप्टर था। ‘इको टूरिज़म’। स्कूल में ‘इको क्लब’ तो ठीक से चल नहीं रहा था। ख़स्ता हाल था। फिर यह कौन सी बला थी जनाब!! कोई भी सिरा पकड़ में नहीं आ रहा था।

जितना समझे उतने में तब यही भेजे में घुसा के पहाड़ों पर भी पर्यटन के लिए जाया जा सकता है। पर थोड़ी जिम्मेदारियों के साथ। उसके मूल स्वरूप को बिना बिगाड़े। मानवीय क्रियाओं से वहाँ के जनजीवन को बिना बाधित किए। आज जितना समझ पाया हूँ उसका हासिल यही है के तब हमारे यहाँ ‘पर्यटन’ तब तक एक ‘उद्योग’ के रूप में अपने पैरों के बल खड़ा होना सीख रहा था। तब ‘प्राकृतिक सौंदर्य’ को ‘दुहने का सौंदर्यशास्त्र’ विकसित किया जा रहा था।

अगर ध्यान से देखें तब हमे दिखाई देगा कि ‘कूड़ा’ अपने आप में जीवनशैली है। उस भोग लिए गए ‘उत्पाद’ का अपशिष्ट रूप। इस सूत्र को थोड़ा और विस्तार से समझें तब लगेगा हमारे दुर्गम स्थल इसी ‘उत्पाद’ के दुह लिए जाने के बाद की अवस्था में पहुँचते जा रहे हैं। वहीं यह पाठ हमसे टकराता है और थोड़ा नैतिक होकर हम आगे आने वाली पीढ़ी से थोड़ा सामाजिक रूप से उत्तरदायित्व लेने की माँग करता है।

कि अगर कल हम कहीं ऐसी जगह जाएँ तब ऐसा अनपेक्षित व्यवहार न करें। पर लगता है वह उसमे पूरी तरह फ़ेल हो गया। अगर ऐसा न होता तब एक इजारेदार अख़बार ऐसा न लिखता के आज का दार्जिलिंग सोलन की तरह लगता है, सोलन कसौली की तरह, मसूरी गाज़ियाबाद की तरह।

दिखने में यह भारतीय वाणिज्य के लंबे हाथों की कारस्तान लगती है जिसने विविधता को इस तरह छिन्न-भिन्न किया। पर जाना इसके पीछे होगा। गहराई में उतरना होगा।

इतने नेगेटिव नोट पर ब्लॉग को शुरू नहीं करना चाहता था पर जो चीज़ साफ़-साफ़ दिख रही है उसे कैसे नज़रअंदाज़ करूँ।

फिर महत्वपूर्ण यह सवाल भी है के जिन ज़ायको की प्रायोजित तलाश में विनोद दुआ एनडीटीवी की टीम लेकर निकलते हैं उन सबको खुद को बचा लेने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता होगा। जहाँ एक तरफ़ पानी की खाली बोतलों के ढेर के ढेर स्पीति में ‘ताशी-द-लेक’ होटल के पिछवाड़े पड़ें हों दूसरी तरफ़  मनाली शिमला के मालरोड पर एक से एक विदेशी ब्रांड अपनी दुकान खोलने को लालायित हो वहाँ उनका खुद का बचना काफी मुश्किल है।

यह ‘फील एट होम’ वाला जो नुक्ता है वही सब खेल बिगाड़ रहा है।

जब मेरे खुद के विचार इस तरह के हैं तब यह ब्लॉग बनाया ही नहीं जाना था। ऐसा कई लोग सोच रहे होंगे। पर नहीं। कई धाराएँ हैं। वे उसे कैसे लेते हैं, यह उनके ऊपर है। मैंने भी कोई सामाजिक दायित्व वाला हिस्सा नहीं उठा लिया है। पता है घूमना भरी जेब वालों का शौक है। जो घुमक्कड़ी कहते हैं, फाकामस्ती कहते हैं; उनके यहाँ भी विदेशी ब्राण्ड के फोटो खींचक कैमरे तस्वीरें उतार रहे हैं।

जिनके पेट भरे हैं, जिनहे कल की चिंता खाये नहीं जा रही है जो सुकून से रोटी कपड़ा मकान वाले त्रिभुज से निकलने में सफल हो चुके हैं उनके हिस्से यह मेक माय ट्रिप, ट्रिप ऍडवायज़र, क्लब महिन्द्रा, महागौरी विकेशन्स जैसे पूरे तंत्र पड़े हैं। फिर घूम चुकने के बाद फ्लिकर, फ़ेसबुक, इनस्टाग्राम, टंबलर जैसी साइट्स हैं, वहाँ महंगे-महंगे कैमरों वाली तस्वीरें अपलोड की जा सकती हैं।

इन सबके बीच एक मैं भी हूँ। और मेरा यह नया अड्डा भी। पता नहीं यह कैसा रूपाकार लेगा। इसके हाथ पैर कैसे अखुयाएंगे।

खुद मेरे लिए दुनिया के मानी क्या हैं? अपने आप में घूमना सैर करना क्या है? यह 'पर्यटक' बन निर्लिप्त भाव से चलते जाना है या उसमे रच बस जाना ? उन रीति रिवाजों परम्पराओं मान्यताओं के प्रति कैसा रुख लेना है? सैर क्या हमेशा नयी नयी जगहों पर कूच करते जाना है या पुरानी जगहों को भी नए सिरों से तलाश जा सकता है? उस लोक में खुद को कहाँ स्थित करूँ? वहाँ तैरती कथाएँ किवदंतियाँ किस्से कहानियाँ किन रूपों में हमारी ज़िन्दगी को प्रभावित करती हैं? सवाल ढेर ढेर सारे हैं और जवाब किसी एक का भी अभी पाना नहीं चाहता। धीरे-धीरे उन कतरों अंतरों गलियों सड़कों से गुज़रते उन्हें छूते चलेंगे।

आप रहेंगे न साथ..!!